Dainik Bhaskar
Nov 08, 2019, 07:36 PM IST
रेटिंग | 4/5 |
स्टारकास्ट | आयुष्मान खुराना, यामी गौतम, भूमि पेडनेकरण, जावेद जाफरी |
निर्देशक | अमर कौशिक |
निर्माता | दिनेश विजन |
म्यूजिक | सचिन जिगर, जानी, बी प्राक |
जोनर | कॉमेडी |
अवधि | 131 मिनट |
बॉलीवुड डेस्क. गला काट प्रतिस्पर्धा और तरह-तरह के गमों से इंसान उतना दुखी नहीं है, जितना समाज के द्वारा दुनिया को देखने के दुनियावी नजरिए से है। यहां किसी भी इंसान की पैमाइश उसके कौशल से ज्यादा उसके लुक से करने के नजरिए की क्लास ली गई है। उस सोच की ‘बाल की खाल’ उधेड़ी गई है।
आम आदमी को जोड़ती है कहानी
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नायक बालमुकुंद शुक्ला यानी बाला की भरी जवानी में बाल झड़ रहे हैं। जबकि बचपन में उसके लंबे, घने बाल ही उसकी पहचान थे। वह मजाक का पात्र बन चुका है। सिर पर टोपी न हो तो कोई उसकी बातें सुनने को राजी नहीं। उसकी शाहरुख खान से लेकर अमिताभ बच्चन तक की मिमिक्री भी लोग सीरियसली नहीं, मजाक में ही लेते हैं। नतीजतन वह हीन भावना से ग्रस्त रहता है। सिर पर बाल उगाने के लिए वह 200 से ज्यादा नुस्खे अपना चुका है, मगर कोई उपाय कारगर नहीं। हालांकि उसकी बचपन की क्लासमेट लतिका त्रिवेदी के साथ ऐसा नहीं है। गहरा रंग होने के बावजूद वह एक कॉन्फिडेंट लॉयर है। वह बाला से रवैया बदलने को बार-बार कहती है, पर बाला जस का तस रहता है। फिर किसी तरह बाला की जिंदगी में टिकटॉक मॉडल परी मिश्रा की एंट्री होती है। परी के लिए लुक ही सब कुछ है। फिर शादी के बाद ऐसा कुछ होता है कि बाला की जिंदगी फिर से ढाक के तीन पात पर आ जाती है। फिर क्या होता है, वह कॉम्प्लैक्स से निकल पाता है कि नहीं, फिल्म उस बारे में है।
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फिल्म की कथाभूमि कानपुर में सेट है। वहां के चटकारे, लफ्फबाजी और माहौल को बड़ी खूबसूरती और गहराई से पकड़ा गया है। बाला, लतिका और परी के रोल में आयुष्मान खुराना, भूमि पेडणेकर और यामी गौतम ने कमाल का काम किया है। उन सबने अपने किरदारों के सुरों को बखूबी पकड़ा है। यकीन नहीं होता कि वे असल जीवन में उस पृष्ठभूमि से ताल्लुक नहीं रखते। बाकी साथी कलाकारों में सीमा पाहवा, सौरभ शुक्ला, सुनीता रजवर, जावेद जाफरी और अभिषेक बनर्जी भी कानपुर में गंजेपन को लेकर मचे हुड़दंग में खासी भसड़ मचाई है। सब में यकीनन आयुष्मान खुराना ने फिर से जादुई परफॉरमेंस दी है। सेल्फी का भूत सवार लड़की टिक टॉक स्टार परी मिश्रा की मनोदशा को यामी गौतम ने आसमानी ऊंचाई प्रदान की है।
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पावेल भट्टाचार्य की कहानी पर अमर कौशिक ने सधा हुआ निर्देशन किया है। फिल्म के फर्स्ट हाफ में कोई नुक्स नहीं है। सेकेंड हाफ में जब बात लुक के बेसिस पर जजमेंटल समाज को आईना दिखाने की बात आती है, वहां थोड़ा बहुत कहानी उलझती है। तथाकथित ‘बदसूरत’ बिरादरी की तरफ से जो तर्क दिए जाते हैं, वे उतने असरदार नहीं हैं, जितने की दरकार थी। वैसे तर्कों से लोग कनेक्ट तो फील करते हैं, मगर हाईली इंप्रेस नहीं होते। एक सीक्वेंस है, जहां बाला अपने गंजेपन का ठीकरा पिता पर फोड़ता है। उसे लिटरली जलील करता है। जीन्स को दोषी ठहराता है। पिता के पास उसका कोई जवाब नहीं होता। पिता की बेचारगी का जवाब न देना थोड़ा कमजोर करती है। बाकी हंसी, मस्ती, मजाक का डोज है। डायलॉग्स तीक्ष्ण तो बने हैं। मगर इन सब खामियों पर आयुष्मान की अदाकारी और उनका मौजूदा दौर मिट्टी डालता है।
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