Chandigarh Today

Dear Friends, Chandigarh Today launches new logo animation for its web identity. Please view, LIKE and share. Best Regards http://chandigarhtoday.org

Posted by Surinder Verma on Tuesday, June 23, 2020

कामयाबी, धर्म और स्वास्थ से जुड़ी चर्चा हुई -विषय मूर्ति की हालिया किताब ग्रैंडमा बैग ऑफ स्टोरी प्रमुख रहा

0
66

चंडीगढ़ सुनीता शास्त्री।चंडीगढ़ लिटरेरी सोसाइटी द्वारा आयोजित लिटराटी-2020 का दूसरा दिन इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति और पूर्व आईएएस विवेक अत्रे की बातचीत से शुरू हुआ।चंडीगढ़ लिटरेरी सोसाइटी द्वारा आयोजित लिटराटी-2020 का व दिन इंसानियत, समाज सेवा, धर्म और स्वास्थय से जुड़ा रहा। जहां इसकी शुरुआत इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरपर्सन सुधा मूर्ति और पूर्व आईएएस विवेक अत्रे की बातचीत से शुरू हुआ। इसका विषय मूर्ति की हालिया किताब ग्रैंडमा बैग ऑफ स्टोरी रखा गया। विवेक ने सुधा से उनकी कामयाबी पर सवाल पूछा तो सुधा ने कहा कि, मैं मिडिल क्लास परिवार से संबंधित हूं। मेरे लिए हमेशा कायमाबी के अलग मतलब रहे। मसलन पढ़ाई के दौरान इंजीनियरिंग कॉलेज में अकेली लडक़ी, जिसके मन में समाज को लड़कियों को कुछ कर दिखाने की आग थी। मैंने ऐसा किया भी, ये मेरे लिए कामयाबी है। जीवन में भी लंबा कार्याकल रहा। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति के साथ लगभग 25 वर्ष काम किया। मैंने इस दौरान कभी कामयाबी के लिए काम नहीं किया। मेरे जीवन में कोई पछतावा नहीं है, ये मेरे लिए कामयाबी है। मैं खुद को संतुष्ट मानती हूं, यही मेरे लिए कामयाबी है। वैसे भी कहावत है कि पैसों के पीछे भागोगे तो पैसा और दूर जाएगा, किसी पैशन के पीछे भागोगे तो पैसा खुद चलकर आएगा। विवेक ने अगले सवाल में मूर्ति की पढ़ाई के दिनों को याद किया। मूर्ति ने कहा कि मैं पूरे कैंपस में और साथ पढऩे वाले सभी लडक़ों से अव्वल थी। उसने मेरे विश्वास को बढ़ाया। इसके बाद जब नौकरी की तलाश में रही, तो वर्ष 1974 में टेल्को (अब टाटा मोटर्स) कंपनी में इंजीनियर की पोस्ट के इश्तेहार को देखा। मगर इश्तेहार के साथ लिखा था कि केवल लडक़े ही इसके लिए अप्लाई करें। इसने मुझे बेहद आहात किया। मैंने सीधा एक पोस्टकार्ड कंपनी के संस्थापक जेआरडी टाटा को लिखा। उनका जवाब आया कि आप इंटरव्यू के लिए आ सकते हैं। मुझे पूणे बुलाया गया। जिसका आने जाने का सारा खर्च कंपनी ने ही उठाया। मुझे फर्स्ट क्लास टिकट दिया गया। इंटरव्यू अच्छा गया, टाटा ने कहा कि ये नौकरी इसलिए मर्दों के लिए क्योंकि इसके लिए आपक घर से दूर होस्टल में रहना होगा और एक बड़ी वर्किंग फोर्स इससे जुड़ी है। मगर मुझे लगता था कि पहला कदम उठाना जरूरी है,ऐसे में मैंने दृढ़ निश्चय से इसे करने की हामी भारी। इंटरव्यू अच्छा गया, मगर मेरे मन में नौकरी नहीं पीएचडी करने का विचार था। ऐसे में पिता से बात की तो उन्होंने मुझे डांटा कहा कि पीएचडी करने के बाद तुम अमेरिका चली जाओगी, शादी कर लोगी और फिर वापिस आओगी, तो देखोगी कि महिलाओं की वही अवस्था है। उनके शब्दों ने मुझे नौकरी करने के लिए प्रेरित किया। जहां शाम तक टाटा ऑफिस में ही रहते थे। वह मेरे बाहर निकलने तक ऑफिस में रहते थे। उनके अनुसार ये उनकी जिम्मेदारी थी कि ऑफिस में कोई महिला कर्मचारी हो तो उसके निकलने के बाद ही मैं भी जाऊं। मैंने वहीं से मानवता की भलाई से जुड़े कार्य सीखे। सच्चे मायनों में वहां मानवता की भलाई से जुड़े कार्य होते थे। लेखन पर मूर्ति ने कहा कि मुझे ये सरस्वति का आशिर्वाद लगता है। स्कूल-कॉलेज में लेख लिखती थी। इंजीनियरिंग के दौरान ये छूट गया। नौकरी के दौरान फिर लिखने लगी। 28 वर्ष की उम्र में पहली बार लिखा। मेरी दसवीं तक पढ़ाई कन्नड़ में हुई, ऐसे में इसी भाषा में लिखती थी। फिर अंग्रेजी में लिखने लगी। मैं हमेशा सच लिखती हूं, जो आस पास घट रहा है। इससे लोग आपकी लेखनी से जुड़ते हैं। अमीर घरों में भी दिक्कतें होती है। इसका मतलब ये नहीं कि आप केवल अमीरों के जीवन की रोमांटिक लाइफ को लिखें। ग्रैंडमा बुक ऑफ स्टोरी मैंने कोरोना वायरस के दौरान लगे लॉकडाउन में लिखी। मुझे लगता है कि युवा पीढ़ी को समझना चाहिए कि एक दूसरे की मदद करना हमारी संस्कृति है। केवल वेस्ट ही बेस्ट नहीं है, हमारा कल्चर भी बेस्ट है। भारतीय संस्कृति पर मूर्ति ने कहा कि महिलाएं अब काम करती हैं, ऐसे में पुरुष और महिलाओं दोनों को ही एक दूसरे का साथ देना होगा। बच्चा पैदा होने के बाद उसमें कल्चर मां ही देती है। मगर इसे पुरुष को भी बराबर मदद करनी चाहिए। नारायण मूर्ति के साथ जुड़े अपने संबंध में सुधा ने कहा कि वह एक एम्पायर खड़ा कर रहे थे। काफी व्यस्त रहते थे। ऐसे में मैंने उन्हें कभी डिस्टर्ब नहीं किया। उन्होंने मुझे समझा और मैंने उन्हें। इसी से हम एक दूसरे के लिए बेहतर बने रहे।दूसरा सेशन लेखक डॉ रक्षंदा जलील और शिक्षाविद सुपर्णा सरस्वति रक्षंदा ने देश और विदेश में धर्म को लेकर बदली सोच पर बात की। उन्होंने कहा कि मुझे हैरानी होती है कि जब कोई मुझे मेरे पहनावे से कहता है कि अरे आप तो इस धर्म से हैं। मैं हैरान होती है कि अभी तक हम इसी सोच में फंसे हुए हैं। मैं अपने लेखन से पाठकों को इससे ऊपर लेकर जाती हूं। दरअसल, इन दिनों इस्लामों फोबिया से ऊपर उठकर सोचने की जरूरत है। ये कहने की बात कर रही हूं कि हम कहां गलत सोचते हैं। हालिया किताब में मैंने करीबन 4 लेख लिखें। जो धर्म,संस्कृति और विभिन्न मुद्दों पर आधारित रहे। मैं लोगों से इसमें बात करना चाहती थी कि वह किन मुद्दों की वजह से विकास को पीछे कर बैठे हैं। लॉकडाउन के बाद क अनुभव पर जलील ने कहा कि इस दौरान कई कहानियां सुनी। जिसमें छह लोगों के ग्रुप द्वारा लोगों के संस्कार करने को लेकर जो मुहीम उठी। उसने मुझे खुशी दी। इसके अलावा कुछ सिख युवाओं द्वारा जामा मस्जिद को साफ करने को लेकर की गई गतिविधी भी बहुत खूब रही। ये हमारी पहचान है। मेरी युवा पीढ़ी से एक अपील है कि वह विभाजन के समय के बाद से आगे आएं, धर्म को लेकर लडऩा अभी भी समझ से बाहर लगता है