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Posted by Surinder Verma on Tuesday, June 23, 2020

ऋचा चड्ढा बोलीं मीटू के आरोपियों को काम करने से रोक नहीं सकते, उनके लिए कोई ब्लैंकेट रूल नहीं

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Dainik Bhaskar

Sep 23, 2019, 10:10 AM IST

अमित कर्ण, मुंबई. बतौर वकील ऋचा चड्ढा ने फिल्म ‘सेक्शन 375’ के जरिए रेप के आरोपियों को लेकर एक बहस छेड़ी है। बेबाक ऋचा ने इस खास बातचीत में पहली बार मीटू आरोपियों को काम देने या दूर रखने के मसले पर अपनी राय भी रखी है। उनका यह मानना है कि जैसे हार्वे विन्स्टीन को जेल तक पहुंचाने में हॉलीवुड की कद्दावर एक्ट्रेसेज सामने आईं, वैसा ही कुछ बॉलीवुड में करना होगा।

रिचा ने इस तरह रखे अपने विचार

  1. आलोचक कहते हैं आपका रोल जिरह के दौरान ज्यादा ही नरम रहा

    हीरल गांधी को एग्रेसिव बनाती तो लोग कहते कि ऋचा तो फुकरे की भोली पंजाबन रिपीट कर रही है। चाहती तो मैं भी दामिनी वाले वकील चड्ढा की तरह जिरह कर सकती थी, क्योंकि मैं भी चड्ढा हूं। पर हीरल जब अंत में जो मोनोलॉग देती है, तभी केस जीतती है न। उसे एग्रेसिव रखती तो कैरेक्टर में ग्राफ ही नहीं होता। ‘मसान’ के टाइम भी सॉफ्ट स्पोकन होने के चलते लोगों ने कहा कि ऋचा तो पूरी फिल्म में चुप ही रहीं।

  2. मुद्दे वाली जरूरी फिल्म के बॉक्स ऑफिस परफॉरमेंस से संतुष्ट हैं

    यह बॉक्स ऑफिस कलेक्शन वाली फिल्म थी ही नहीं। यह वर्ड ऑफ माउथ से चलने वाली फिल्म थी। अच्छी बात यह है कि इस तरह की फिल्मों के भी स्पेस बनने का आगाज तो हो चुका है। मिसाल के तौर पर ‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल 15’ ऐसी फिल्मों में कमर्शियल एक्टर्स तो हैं, पर एक जरूरी सब्जेक्ट फिल्म के केंद्र में है। वैसी फिल्मों का कलेक्शन मॉडेस्ट ही होता है। अच्छा हमारी फिल्म में गाने-वाने भी नहीं थे। लीगल केस पर फिल्म थी।

  3. ऐसी फिल्मों से समाज में किसी तरह के बदलाव की उम्मीद मुमकिन है?

    फिल्में बुनियादी तौर पर तो मनोरंजन के लिए ही होती हैं। नुक्कड़ नाटकों वगैरह से जरूर बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। कविताएं वगैरह आंदोलन ला सकती हैं। हालांकि ‘रंग दे बसंती’ जैसी अच्छी फिल्म आई थी तो लोगों में क्रांति की भावना तो जागी थी। पर ऐसा हर बार हो पाना मुझे संभव तो नहीं लगता।

  4. वेस्ट की तरह यहां भी मीटू आरोपियों को काम का हक मिलना चाहिए?

    केस को कोर्ट तक पहुंचना चाहिए। लीगली कुछ होगा तो बड़ा बदलाव आएगा। प्रॉपर पुलिस केस बने तो बात बनेगी। रहा सवाल अदालती फैसले आने तक मीटू आरोपियों को काम का हक देने का तो उस पर हम ब्लैंकेट रूल नहीं बना सकते। उससे आदमी और औरत दोनों का नुकसान होगा। साथ ही हर एक केस का मेरिट होता है। वरुण ग्रोवर और करण ओबेरॉय पर तो झूठे आरोप थे। करण को तो जेल में रहना पड़ा। बजाय इसके कि सबूत उनके पक्ष में थे। कुछ केस ऐसे रहे, जहां नामी-गिरामी डायरेक्टर पर एक लड़की ने मीटू के आरोप लगाए। उसे देख उस डायरेक्टर पर दो तीन और लड़कियां आरोप लगाती हैं। इससे जाहिर तो होता है कि उस डायरेक्टर की यौन शोषण की फितरत ही रही है।

  5. एक और मामला ऐसा रहा, जहां 20 साल पहले रेप करने के आरोप लगे। हरेक केस को इंडिविजुअल केस के तौर पर देखने की जरूरत है। केविन स्पेसी पर आरोप लगा तो उन्होंने कन्फेस किया। उसकी बुनियाद पर केस आगे बढ़ा। इंडिया में भी ऐसा होना चाहिए। इंडिया में ऐसा नहीं है। हॉलीवुड में हार्वे विंस्टीन को जेल पहुंचाने में वहां की कद्दावर एक्ट्रेसेज भी सामने आईं थीं। बॉलीवुड की एक्ट्रेसेज को भी सामने आना होगा। एक रैपर म्यूजिशन आर केली पर टीन एज लड़कियों को मोलेस्ट करने का आरोप था। इनका अध्ययन करें तो पाएंगे कि एक पैटर्न है। जैसे सीरियल किलर होते हैं, वैसे सीरियल प्रीडेटर होते हैं।

  6. तो काम करने की इजाजत होनी चाहिए कि नहीं, जब तक आरोपी गुनहगार साबित हो?

    औरतें इंडस्ट्री में बहुत समय से परेशान रहे हैं। अब हमें गाइडलाइंस तो लाने होंगे। जिसने नॉनवेज जोक्स क्रैक किया, उसकी सजा अलग होनी चाहिए। जिसने गलत तरह से छुआ, उसकी सजा अलग होनी चाहिए। रहा सवाल काम का तो मीटू आराेपियों को लीगली काम करने का हक है। पर ऐसे केसेज भी हैं, जहां 25 लोगों ने एक आदमी पर आरोप लगाए। 

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