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Posted by Surinder Verma on Tuesday, June 23, 2020

कृषि विशेषज्ञ की चेतावनी -पराली जलाना न रुका तो कोविड के हालात और बिगड़ेंगे

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पराली जलाने की घटनाएं रोकने का एक ही समाधान है कि किसानों से फसलों के अवशेष खरीदे जायें और उससे सिलिका समृद्ध खाद बनायी जाये, कोविड के खिलाफ ढाल है सिलिका
चंडीगढ़, सुनीता शास्त्री। संपूर्ण उत्तर भारत, विशेष कर पंजाब में कोविड-19 के बढ़ते मामलों के बीच, प्रतिष्ठित कृषि, मृदा एवं पर्यावरण विशेषज्ञ संजीव नागपाल, जो राज्य व केंद्र सरकार को पराली प्रबंधन के बारे में सलाह देते आये हैं, ने चेतावनी दी है कि रबी फसल के सीजन के दौरान इस माह के अंत में खेतों में पराली जलाने से कोविड-19 की हालत और विषम हो सकती है।सम्पूर्ण एग्री वेंचर्स (एसएवीपीएल) के प्रबंध निदेशक, संजीव नागपाल ने कहा, पंजाब में पिछले साल पराली जलाने के लगभग 50,000 मामले सामने आये थे। उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में पार्टीकुलेट मैटर के जरिए वायु प्रदूषण बढ़ाने में पराली जलाने की घटनाओं का योगदान लगभग 18 से 40 प्रतिशत तक होता है। इसके कारण वायुमंडल में बड़ी मात्रा में जहरीले प्रदूषक घुल जाते हैं, जिनमें मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें शामिल रहती हैं। अगर पराली प्रबंधन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की जाती है, तो ये प्रदूषक श्वसन संबंधी समस्याओं को जन्म दे सकते हैं, जिसके चलते कोविड-19 की स्थिति और भी खराब हो सकती है, क्योंकि कोरोना वायरस सांस की नली को प्रभावित करता है। यहां यह बताना जरूरी है कि भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय से संबद्ध सिस्टम ऑफ़ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (एसएफएआर) के अनुसार, पिछले साल दिल्ली एनसीआर के प्रदूषण में पंजाब व हरियाणा में पराली जलाने की घटनाओं का योगदान 44 प्रतिशत तक रहा था।नागपाल ने आगे रेखांकित किया कि खेतों में फसलों के अवशेष जलाने से न केवल बड़े पैमाने पर वायु प्रदूषण होता है, बल्कि इससे मिट्टी की सेहत भी प्रभावित होती है, जो पंजाब में पहले से खराब हालत में है। उल्लेखनीय है कि वर्षों से कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के साथ-साथ पराली जलाने से मिट्टी में घुलनशील सिलिका, कार्बन और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों की कमी हुई है।नागपाल ने आगे कहा, सिलिकॉन (एसआई) मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म तत्वों में से एक है, जो पर्यावरणीय तनाव की स्थिति में पौधों को स्वस्थ रखता है। मिट्टी में घुलनशील सिलिका की कमी होने से इस तत्व की मनुष्यों में भी कमी होने लगी है। लोगों को कोविड-19 और अन्य बीमारियों का एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। इसका कारण है मनुष्यों में सिलिका की अपर्याप्त मात्रा, जिससे वायरस और रोगजनकों के प्रति शरीर की इम्युनिटी कमजोर होती जाती है। तो फसल के अवशेषों को खेत में जलाने का विकल्प क्या है? अकेले पंजाब में हर साल 55 मीट्रिक टन से अधिक फसलों का अवशेष उत्पन्न होता है, जिसमें 40 प्रतिशत सरप्लस होता है। नागपाल बताते हैं कि इसका एक उपाय तो यह है कि कारखाने और राज्य सरकारें उचित मूल्य देकर किसानों से पराली खरीद कर उसका भंडारण करें और फिर उपयुक्त तकनीक का प्रयोग कर उसे जैविक खाद में बदलें तथा बायोगैस तैयार करें।पंजाब के फाजिल्का में नागपाल के एसएवीपीएल प्रोजेक्ट ने आईआईटी और पीएयू लुधियाना के साथ मिलकर इस तकनीक को विकसित किया है। अत्याधुनिक परियोजना के तहत पिछले साल लगभग 10,000 मीट्रिक टन धान का भूसा खरीदा गया था, जिससे लगभग 500 किसान लाभान्वित हुए थे। संयंत्र अब प्रति दिन 8 मीट्रिक टन सिलिका खाद बना रहा है और इसकी क्षमता 25 मीट्रिक टन प्रति दिन है। परियोजना की क्षमता को बढ़ा कर हर साल 15,000 मीट्रिक टन पराली प्रोसेस करने की योजना है।संजीव नागपाल ने कहा, ‘हमारी अवधारणा सिलिका युक्त खाद बनाने के लिए पराली को प्रोसेस करने पर आधारित है, जो मिट्टी के स्वास्थ्य और भोजन की गुणवत्ता में सुधार लाएगी, जिससे लोगों के स्वास्थ्य में सुधार होगा। हम चाहते हैं कि पंजाब सरकार फसल अवशेष प्रबंधन के जरिए इसे जैविक खाद में परिवर्तित करने पर जोर दे, ताकि इसे पूरे राज्य में लागू किया जा सके। इससे न केवल पराली जलाने की समस्या का हल निकलेगा, बल्कि सेहत के लिए अच्छे खाद्यों का उत्पादन करने में मदद मिलेगी, जिससे किसानों को बेहतर दाम मिलेगा और उपभोक्ताओं कोउचित मूल्य पर किसानों से सीधे खरीद करने का मौका मिलेगा।जबकि कृषि नीति की समीक्षा की जा रही है, केंद्र सरकार ने किसानों को अपनी उपज सीधे उपभोक्ताओं को बेचने की अनुमति दे दी है।नागपाल ने कहा, हमारा विचार यह है कि किसानों व आमजन के बीच अच्छी गुणवत्ता की जैविक खाद से पौधों की बढ़त को दर्शाया जा सके। फिर हम बेहतर आय हेतु किसानों को गुणवत्तापूर्ण खाद्यान बेचने के लिए सीधे उपभोक्तओं से जोड़ेंगे।