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Posted by Surinder Verma on Tuesday, June 23, 2020

'लंगर बाबा' पद्मश्री से सम्मानित होंगे, पाकिस्तान से खाली हाथ आए, बेटे के जन्मदिन से शुरू किया लंगर 38 साल से जारी

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  • चंडीगढ़ के जगदीश लाल आहूजा को ‘लंगर बाबा’ के नाम से जाना जाता है, 12 साल की उम्र में पेशावर से आकर मानसा में बसे थे
  • पटियाला में रहेड़ी लगाई और फिर जब चंडीगढ़ शिफ्ट हुए तो सिर्फ 4 रुपए 15 पैसे थे जेब में

Dainik Bhaskar

Jan 26, 2020, 09:12 AM IST

जालंधर/चंडीगढ़. पद्मश्री पुरस्कारों की घोषणा हो चुकी है। इस लिस्ट में लंगर बाबा का भी नाम है, जिनका असली नाम जगदीश लाल आहूजा है। ये चंडीगढ़ के रहने वाले हैं। जगदीश लाल पिछले 38 साल से भूखे और जरूरतमंद लोगों को खाना खिलाते आ रहे हैं, जिसकी वजह से इनका नाम ही लंगर बाबा पड़ गया। आइए जानते हैं इस नाम के पीछे की वह प्रेरणादायक कहानी कि किस तरह भूखे मरने पर मजबूर एक व्यक्ति करोड़पति बना और, फिर दादी से मिली प्रेरणा को निभाने के लिए अब भी दर्जनभर के करीब संपत्ति बेच चुके हैं।

व्यवसायी जगदीश लाल आहूजा पिछले करीब  20 साल से यह पीजीआईएमएस के बाहर दाल, रोटी, चावल और हलवा बांट रहे हैं, वो भी बिना किसी छुट्टी के। उनके कारण पीजीआईएमएस का कोई मरीज रात में भूखा नहीं सोता है। इसी कारण इन्हें लोग बाबा और इनकी पत्नी को जय माता दी के नाम से जानने लग गए। हर रात 500 से 600 व्यक्तियों का लंगर तैयार होता है। लंगर के दौरान आने वाले बच्चों को बिस्कुट और खिलौने भी बांटे जाते हैं। मजबूरों का पेट भरते हैं, वहीं इससे भी बड़ी रोचक बात तो यह है कि यह अपनी जमीन-जायदाद सब बेच चुके हैं।

आहूजा भारत-पाकिसतान के बंटवारे के महज 12 साल की उम्र में पंजाब के मानसा शहर आए थे। जिंदा रहने के लिए रेलवे स्टेशन पर उन्हें नमकीन दाल बेचनी पड़ी, ताकि उन पैसों से खाना खाया जा सके और गुजारा हो सके। कुछ समय बाद वह पटियाला चले गए और गुड़ और फल बेचकर जिंदगी चलाने लगे और फिर 1950 के बाद करीब 21 साल की उम्र में आहूजा चंडीगढ़ आ गए। उस समय चंडीगढ़ को देश का पहला योजनाबद्ध शहर बनाया जा रहा था। यहां आकर उन्होंने एक फल की रेहड़ी किराये पर लेकर केले बेचना शुरू कर दिया। उस समय को याद करते हुए वह कहते हैं, ‘मुझे याद है कि इस शहर में मैं खाली हाथ आया था, शायद 4 रुपए 15 पैसे थे मेरे पास। यहां आकर मुझे धीरे-धीरे पता लगा कि यहां मंडी में किसी ठेले वाले को केला पकाना नहीं आता है। पटियाला में फल बेचने के कारण मैं इस काम में माहिर हो चुका था। बस फिर मैंने काम शुरू किया और मेरी किस्मत चमक उठी और मैं अच्छे पैसे कमाने लगा।’

दादी से मिली आहूजा को प्रेरणा
लोगों को भोजन करवाने की प्रेरणा उनकी दादी माई गुलाबी से मिली, जो गरीब लोगों के लिए अपने शहर पेशावर में इस तरह के लंगर लगाया करती ​थी। आहूजा आहूजा बताते हैं कि 1981 में उन्होंने बेटे के जन्मदिन पर लंगर लगाने का क्रम शुरू किया था, जब सेक्टर-26 मंडी में लंगर लगाया। लंगर में सैकड़ों लोगों की भीड़ जुटी। खाना कम पड़ने पर पास बने ढाबे से रोटियां मंगवाई गई। उसके बाद से मंडी में लंगर लगने लगा।

2000 में पीजीआईएमएस के बाहर शिफ्ट हुआ लंगर
जनवरी 2000 में जब वह खुद बीमार हो  पीजीआईएमएस में एडमिट थे तो जिंदगी बड़ी मुश्किल से बच पाई थी। पेट के कैंसर से पीड़ित जगदीश लाल आहूजा ज्यादा दूर चल नहीं पाते, लेकिन इसके बावजूद लोगों की मदद करने में उनके जज्बे का कोई मुकाबला नहीं है।