हिसार (हरियाणा)। मैं एयरफोर्स में थी। जीजेयू के हरियाणा स्कूल ऑफ बिजनेस से पीएचडी कर रही थी। प्रो. संजीव उस समय असिस्टेंट प्रोफेसर थे। साल 2003-04 में जब मैं जीजेयू में टीचिंग करती थी, उस दौरान हम दोनों में नजदीकियां बढ़ीं। पीएचडी के दौरान किताबों के आदान-प्रदान ने हमें और नजदीक ला दिया। बातों ही बातों में मैंने एक दिन संजीव से कहा कि यदि 26 जनवरी की गणतंत्र दिवस की परेड में मुझे लीड करने का मौका मिला तो जो मांगूंगी वह दोगे। संजीव ने हामी भर दी। मुझे लीड करने का मौका मिला और मैंने उनसे मैरिज करने की बात कही। 16 अप्रैल, 2008 को हम दोनों शादी के पवित्र रिश्ते के बंधन में बंध गए। दोनों की जाति अलग थी। परिवार के कुछ लोग हमारे फैसले के खिलाफ थे, लेकिन माता-पिता राजी हो गए। साल 2014 में मैं एयरफोर्स से स्क्वाड्रन लीडर के पद से सेवानिवृत होकर प्रोफेसर बनी। किताबों के प्रति लगाव ने हम दोनों को एक दूसरे का दोस्त बनाया। तीन साल एक दूसरे को जानने और समझने के बाद ही हम जीवनसाथी बने।
-जैसा कि प्रो. सुनीता रानी और संजीव कुमार ने बताया। प्रो. संजीव कुमार जीजेयू यूनिवर्सिटी हिसार के एचएसबी में बतौर प्रोफेसर के पद कार्यरत हैं। प्रो. सुनीता लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, देहरादून में सामाजिक प्रबंधन विषय की प्रोफेसर हैं।
अलग-अलग लैंग्वेज और रीति-रिवाज से जुड़ाव होने के बाद भी हम हुए एक
हमने एक-दूसरे को चुन लिया था। अलग-अलग स्टेट और अलग लैंग्वेज व रीति रिवाज होने के बाद भी एक होने का विचार बन चुका था मगर हां करने में करीब 1 साल गुजारा। और अंतत: विश्वास, ईमानदारी और डेडीकेशन जीत गया। हम एक रिश्ते में बंध गए। डर था कि इतने कल्चरल डिफरेंसेज के बावजूद दोनों फैमिली भी स्वीकार करेंगी या नहीं। मगर परिवार ने सोशल स्टेटस नहीं हमारे रिश्ते के प्रति शिद्दत और ईमानदारी रही। उन्होंने हमारे रिश्ते पर विश्वास बनाया। पिछले 21 सालों से सिर्फ हम ही नहीं बल्कि हमारा परिवार भी हमारे डिसीजन पर खुश है। किसी भी रिश्ते के लिए फैमिली का आशीर्वाद, सहयोग जरूरी है तो युवाओं के लिए जरूरी है कि वह अपने प्रेम के प्रति ईमानदारी को उतनी ही ईमानदारी से व्यक्त करें। परिवार आपकी ईमानदारी को जरूर समझेगा। -जैसा कि डॉ. प्रज्ञा कौशिक और प्रो. विक्रम कौशिक ने बताया।
45 साल पहले मिले, घरवालों की मान-मनौव्वल के बाद की लव मैरिज, अब छोटी बेटी ने भी लव मैरिज की तो दिया साथ
मैं मुजफ्फरनगर में एमएससी जूलॉजी की स्टूडेंट थी। राजेंद्र से पहली मुलाकात में ही अलग ही अट्रेक्शन महसूस हुआ। यही अट्रेक्शन कब प्यार में बदला हम दोनों को ही नहीं पता चला। एक दिन मैंने मां से डरते हुए अपने दिल की बात कही, जिसे सुनकर एक बारगी तो मां बहुत खफा हुई। पर जल्दी ही मान गई। उन्होंने मुझे कहा कि बेटा तुम पहले पढ़ाई पूरी करो, इसके बाद मैं खुद तुम्हारे पापा से बात करूंगी। मां की बात सुन कुछ निश्चित गई थी, मगर अचानक मां बीमार पड़ी आैर हम दुनिया को अलविदा कह गईं। एक बार को लगा कि अब हम दोनों कभी एक नहीं हो पाएंगे। हम दोनों की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी और मैं पलवल के गवर्नमेंट कॉलेज में अध्यापक लग गई तो वहीं राजेंद्र की हिसार के डीएन कॉलेज में नियुक्ति हुई। राजेंद्र ने मुुझसे मेरे चाचा का नंबर लिया और उनसे बात की, जिसके बाद उन्होंने मेरे पिताजी से बात की ताे उन्होंने इनकार कर दिया। मगर मैंने फैसला कर लिया था जो अपने पापा को बताया और साफ कह दिया। पापा ने कई महीने मुझसे बात नहीं की और बात शुरू करने के साथ ही रिश्ते के लिए हामी भी भर ली। सन् 1975 में मैं और राजेंद्र परिणय सूत्र में बंधे। आज राजेंद्र मेरे साथ नहीं हैं मगर दो बेटियां मेरे पास हैं। मेरी छोटी बेटी ने भी की लव मैरिज के लिए कहा तो हम उसके स्पोर्ट में आए।
-जैसा कि चंद्रकांता ने बताया।
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