जोधपुर (भंवर जांगिड़).एवरेस्ट से बड़ी कोई ऊंचाई नहीं, उससे बड़ा खतरा नहीं। सफर की मुश्किलों से ज्यादा जीवन में परेशानियां नहीं। और फिर ऐसा करने की भी जरूरत क्यों जब आप अच्छा और सहज जीवन जी रहेहों।हर कोई यही सोचता है, जो नहीं सोचता है वही तो एवरेस्ट फतह करता है। हम बात कर रहे हैं आदित्य बिड़ला समूह के फैशन डिविजन के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट वेंकटेश माहेश्वरी (46) की। उन्होंने 16 मई 2018 को विश्व की सबसे ऊंची चोटी पर झंडा फहराया है।
जोधपुर में एक कार्यक्रम में आए वेंकटेश से दैनिक भास्कर ने एवरेस्ट की यात्रा और जीवन के इसी फंडे पर बात की। उन्होंने कहा कि जॉब, जोखिम, जुनून व जिंदगी की राशि एक ही है, परंतु जब नक्षत्रों से लड़ने की ही सोच लें तो कामयाबी अपने आप पैरों में आ जाती है। उन्होंने कुछ नया करने, खतरा उठाने, पक्की सोच रखने तथा ऊंचाई पर जाकर धरातल से जुड़े रहने के साथ ईश्वर में आस्था रखने जैसे पैरामीटर बताए जिनकी बदौलत हर आदमी अपने कॅरिअर में कामयाब हो सकता है।
सबसे पहले…तय करो, तर्क से बचो
यदि एवरेस्ट चढ़ने की चर्चा पहले ही करता था तो लोग कहते, क्या जरूरत है? यह काम अपना नहीं है, इससे क्या हासिल हो जाएगा? इसलिए किसी से चर्चा नहीं। घर में बताया तो पत्नी व बेटी ने कई दिनों बात नहीं की। फिर उन्होंने सोचा बात कर ही लो, शायद लौटूंगा या नहीं। जब एवरेस्ट फतह की और 29 हजार फीट से पत्नी-बेटी से वीडियो कॉल की तो सच मानो मुझ से ज्यादा खुशी परिवार में थी।
फिर खुद काे झोंक दो
मुंबई में 50वीं मंजिल पर घर है, शुरुआत वहीं से की और रोज सीढ़ियों से 10 बार 50 मंजिल दौड़ते हुए चढ़ना-उतरना शुरू कर दिया। समझ आ गया कि इस टास्क के लिए तैयार हूं। फिर मैराथन दौड़ लगानी व पहाड़ चढ़ना शुरू किया। जाॅब के ये आसान नहीं था, मगर जितना बड़ा टास्क था तो मेहनत भी वैसी ही चाहिए इसलिए खुद को पूरी तरह उसमें झोंक दिया।
जिंदगी से बड़ा कोई खतरा नहीं
करीब 50 दिनों का सफर था। करीब 23 हजार फीट के ऊपर जहां या तो नंगे पहाड़ और चारों ओर बर्फ ही थी। ऑक्सीजन ने भी वहां साथ छोड़ दिया। रात में चढ़ते क्योंकि दिन के तापमान में बर्फ पिघल कर बहने लगती है। हिमस्खलन होता है, तूफान चलने लगता है। कई बार तो ऐसा लगा कि मेरी सुबह तो होगी ही नहीं। जीवन में इससे बड़े कहीं खतरे हैं?
सही गाइड बहुत जरूरी
चोटी पर पहुंचने का लक्ष्य बहुत कठिन था, अनेक लोग कोशिश करते हैं, कामयाब कम होते हैं। दस लोगों की टीम में आधे ही पार हो पाए। कामयाबी इसलिए मिली क्योंकि मैंने शेरपा (गाइड) उसी को चुना जो खुद चार बार चोटी पर पहुंच चुका था। हालांकि ये शेरपा खुद मेरे साथ नहीं चला, परंतु उसने मुझे वहां तक पहुंचाया। उसी ने मेरे शरीर को तैयार रखा, कहां से कब लौट आना है और कब बढ़ना है, यह उसी ने बताया।
धरातल से जुड़े रहना है
एवरेस्ट की चढ़ाई जिंदगी में बहुत बड़ी सीख देती है। 21 हजार फीट पर बेस कैंप था। वहां से 23 हजार फीट चढ़ते, फिर बेस कैंप में आते थे। आगे बढ़ने के लिए यह एकमात्र जरूरत थी। इससे शरीर फिर आगे बढ़ने के लिए तैयार वहीं पर होगा। यानी ऊंचाई पर जाने के लिए हर आदमी को अपने धरातल (बेस) से जुड़े रहना जरूरी है, वही आपको और आगे बढ़ा सकता है।
आस्था से बल मिलता है
जैसे-जैसे आदमी ऊपर जाता है, आस्था भी बढ़ती रहती है। एवरेस्ट की आधी चढ़ाई के बाद सभी पर्वतारोही पूजा करके ही बढ़ते हैं। शेरपा बिना इसके आगे ले ही नहीं जाते। कहते भी हैं कि पहाड़ों पर आस्था ज्यादा ही होती है। आरती करते हैं तो उससे शरीर को आत्मीय बल मिलता है, वह बल ही कठिन पहाड़ी पार कराता है। भरोसा हो जाता है कि हम कामयाब होंगे।
आखिर में, प्रेशर में आए तोगए
20 मई 2017 को पर्वतारोही रवि कुमार की उतरते वक्त मौत हो गई। उसकी तबीयत खराब हो गई थी। वह कामयाबी हासिल करने के प्रेशर में थे। उनके शेरपा ने उस दिन की चढ़ाई नहीं करने की सलाह दी थी, परंतु उन पर खुद का ही इतना प्रेशर था कि वह नहीं माने। कई लोग अपने लक्ष्य से ठीक पहले रुक जाते हैं, वह भी कम कामयाबी नहीं है। सीख यही है कि कामयाब होने का एक्सट्रीम प्रेशर लेना ही नहीं चाहिए।
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